Aaj Ki Baat !
औरंगजेब और गुरु गोविन्द सिंह
गुरु गोविन्द सिंह ने अमृतसर के दरबार साहेब को अपना केंद्र बनाया था। उनके पिता तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु थे। उन्होंने पंथ की हित साधना में अपना सर तक कटवा दिया था। अमृतसर का शहर मुगलकाल बादशाहों की अमलदारी के भीतर था। सरहिन्द का नवाब औरंगजेब का सूबेदार था। सरहिन्द के आस पास पहाड़ी हिन्दू रियासतें थीं। गुरु गोविन्द सिंह ने आन्नदपुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। पहाड़ी राजाओं के सिख प्रजाजन गुरु के दरबार में भेंट चढ़ाते थे। इन पहाड़ी राज्यों में गुरु गोविन्द सिंह के मसंद ( मसंद फारसी शब्द है जिसका अर्थ है मसनद या गद्दी ) रहते थे। मसनदों का काम था गुरु के भक्तों से भेंट लेकर गुरु के पास भेजना। सरहिन्द में भी गुरु का मसंद रहता था। सरहिन्द के मसंद और वहां दरबार में रहने वाले हिंदु राजा के प्रतिनिधियों में इसी बात को लेकर झगड़ा होता था राजा ने गुरु को लिखा “आपके मसंद हमारी रिआया से टैक्स वसूल कर रहे हैं आपको टैक्स वसूलने का हक नहीं है। आप अपने मसंदों का वापस बुला लीजिये”। गुरु गोविंद सिंह ने पता लगाकर पत्र का उत्तर दिया कि “मेरे मसंद किसी से कोई टैक्स वसूल नहीं करते, गुरु के भक्त जो उनको भेंट देते हैं उसे लेकर वे दरबार साहेब को भेज देते हैं किसी के यहां जाकर वे एक पैसा भी वसूल नहीं करते, मैंने पता लगा लिया है इसीलिये सर हिन्द से मसंद को वापस नहीं बुलाऊंगा”।
गुरु गोविन्द सिंह के जवाब के बाद मसंद और कर्मचारियों में झगड़े हुऐ मसंद मारा गया उसके मरने पर गुरु के भक्तों ने मसंद की मूर्तियों के लिये चढाई कर दी। गुरु की फौज में हिंदु सिख मुसलमान सभी थे। जिनमें मुसलमानों की संख्या अधिक थी। कई दिन तक लड़ाई जारी रहा, गुरु की फौज का पलड़ा भारी रहा। हिंदु राजाओं ने औरंगजेब को खबर भेजी “जहांपनाह हम आपकी रिआया हैं हम पर बागी गोविन्द सिंह ने हमला किया है आप मदद के लिये हुक्म भेजिये। औरंगजेब के दरबार में नंदलाल नामक मुंशी था औरंजेब ने नंदलाल से पूछा । यह क्या मामला है ?
नंदलाल – “जहांपनाह यह उनका मुकामी मामला है आपस में तय करें सल्तनत इसमें दखल न दें”।
औरंगजेब के इस इन्कार पर गुरु का प्रभाव और अधिक बढ़ गया हिंदू राजाओं ने मिलकर औरंगजेब को दोबारा लिखा। “ जहांपनाह अगर आप हमें मदद नहीं देंगे तो पंजाब के सबके सब हिंदू आपके हाथ से निकल जायेंगे”
औरंगजेब के सामने प्रश्न था पूरे पंजाब के हिंदुओं का इस बार मुंशी नन्दलाल की बात नहीं सुनी गई।
दिल्ली से कुमुक पहुंचते ही गुरु गौविंद सिंह की सेना के पांव उखड़ गये लड़ाई में उनके दो पुत्र काम आये। गुरु गोविन्द सिंह ने आन्नदपुर छोड़ने का फैसला किया उनके साथ मां और उनके दो मासूम बेटे थे और रसोईया गंगू भी था। गंगू ने गुरु से प्रार्थना की कि “बच्चों और माता जी को मेरे पास छोड़ दीजिये मैं उन्हें हिफाजत से रख लुंगा।”
मुगल दरबार के नवाब नाजिम सर हिन्द में रहते थे उन्होंने ऐलान किया कि जो गुरु के दो मासूम बेटों को नाजिम के दरबार में पेश करेगा उसको भारी रकम ईनाम में मिलेगी। गंगू का दिल डोल गया उसने गुरु के दोनों बेटों में इनाम के लालच में नाजिम के दरबार में पेश कर दिया।
बच्चों को लेकर नाजिम के दरबार में काफी बहस हुई नाजिम के दो सलाहकार थे एक मलेरकोटला के नवाब और दूसरा हिंदू दीवान। मलेरकोटला के नवाब ने कहा “हमारी लड़ाई गोविन्द सिंह से है इन बच्चों से नहीं इन्हें छोड़ देना चाहिये।”
हिन्दू दीवान “सांप के बच्चे सांप होते हैं, इन्हें आपने छोड़ दिया तो हिंदू हमारे हाथ से निकल जायेंगे”।
एक मत के खिलाफ दो मतों से गुरु के दोनों बेटे जिंदा दीवार में चिनवा दिये गये, चिनने का हुक्म नाजिम ने दिया। उधर गोविन्द सिंह भागते हुऐ पंजाब की ओर जा रहे थे पहाड़ी राजाओं ने उन्हें पकड़वाने की कोशिश की और मुसलमानों ने उनकी जान बचाने की। मुसलमान भाईयों का एक बाग था इन दोनों मुसलमानों ने बाग के अंदर गोविन्द सिंह को ठहराया। एक दिन वे गुरु के साथ नाश्ता कर रहे थे कि मुगल सेना को पता चला कि गुर बाग में है। एक सवार बाग में आया, मुसलमान भाईयों ने गोविन्द सिंह से कहा “अपना साफा उतारकर टांगों में दबा लीजिये और बाल खोल दीजिये।“ सवार पास आया और भाईयों ने जवाब दिया “यहां कोई गोविन्द सिंह नहीं है”। सवार को शक हुआ उसने पूछ ये नंगे सिर वाला कौन है ? भाईयों ने जवाब दिया ये “हमारे उच्छ के पीर हैं” सवार को यकीन हो गया बोला पीर साहेब को मेरा सलाम इस तरह गुरु की जान बच गई ।
एक जगह, भाखड़ा नांगल से कुछ ऊपर एक छोटा सा गांव है वहां सड़क के किनारे एक मौलवी का घर था। मौलवी ने गोविन्द सिंह को अपने यहां छिपा लिया था मुगल सेना के सिपाही वहां भी पीछे – पीछे पहुंचे मौलवी ने अपनी जवान बेटी को पर्दे के पीछे बैठा दिया और उसी के पास गुरु जी को बैठा दिया। सैनिक आये पूछा “यहां गोविन्द सिंह है ”
मौलवी – “यहां गोविन्द सिंह का क्या काम”
सैनिक ऊपर की मंजिल में गये पर्दे पास अटके फिर पर्दा हटाकर देखा पूछा – “यह कौन है”
मौलवी “इसमें मेरी लड़की और दामाद है” सैनिक हल्कि निगाह डाली और देखकर चला गयाइस तरह की कई घटनाऐं हुईं। कई दिन के बाद गुरु जी ने भागते हुऐ किसी मुकाम से औरंगजेब को फारसी कविता में फटकार के साथ एक खत लिखा । 30 – 40 सफ्हे का यह खत था इसका नाम है “जफरनामा” खत की कुछ लाईनें हैं
“मनम कुश्तनी कोहिया पुरफितन
के आं बुतपरस्तां वो मन बुतशिकन।
अर्थात “ मारा मैं जाऊं और ये पहाड़ी हिंदू राजा फितने से भरे हैं। ये बुतपरस्त हैं और मैं बुतशिकन (मूर्तीभंजक) हूं। तुझे शर्म नहीं आती कि तूने इस मूर्तीपूजकों को मुझ मूर्तीभंजक के विरुद्ध मदद दी”।
खत जब औरंगजेब के दरबार में पहुंचा तो उसने पूछा कि ये “कौनसा मामला है” ? नन्दलाल “ जहांपनाह यह वही सरहिन्द का मामला है आपने दोबारा कहने पर कुमक भेज दी थी“
औरंगजेब “ गोविन्द सिंह कैसा आदमी है”
नन्दलाल “ जहांपनाह अल्लाह वाला है बुतपरस्ती और शिर्क के खिलाफ है मवहिद है”
औरंजेब “ क्या मवहिद है ? तो कुमुक भेजना गलती हुई ?“
औरंगजेब ने जरा सोचकर कहा – “ सल्तनत की तरफ से फरमान जारी कर दो कि गोविन्द सिंह जहां चाहे रहकर, जिस तरह चाहे अल्लाह को याद कर सकता है। उसके साथ कहीं कोई मज़ाहत न हो।“
यह फरमान सारे हिन्दुस्तान में भेज दिया गया इस फरमान की कॉपी गुरु गोविन्द सिंह को मिल गई उनका छिपकर रहना समाप्त हो गया। लेकिन उन्हीं दिनों के करीब वे दक्षिण जाने का फैसला कर चुके है। उन्होंने खुले दक्षिण की यात्रा की। वहां नांदेड़ में दो पठानों के साथ उनका झगड़ा हुआ वहीं गुरु गोविन्द सिंह शहीद हुऐ और वहीं उनकी समाधी बनी।
अब आप खुद तय कर लीजिये कि स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला मनघड़ंत इतिहास से ये तथ्य कितने भिन्न हैं।
भारतीय संस्कृति
मुगल विरासत : औरंगजेब के फरमान - लेखक बिशमंभर नाथ पांडे पेज नं. 122 – 125 (प्रकाशक हिंदी अकदमी दिल्ली)
गुरु गोविन्द सिंह ने अमृतसर के दरबार साहेब को अपना केंद्र बनाया था। उनके पिता तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु थे। उन्होंने पंथ की हित साधना में अपना सर तक कटवा दिया था। अमृतसर का शहर मुगलकाल बादशाहों की अमलदारी के भीतर था। सरहिन्द का नवाब औरंगजेब का सूबेदार था। सरहिन्द के आस पास पहाड़ी हिन्दू रियासतें थीं। गुरु गोविन्द सिंह ने आन्नदपुर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। पहाड़ी राजाओं के सिख प्रजाजन गुरु के दरबार में भेंट चढ़ाते थे। इन पहाड़ी राज्यों में गुरु गोविन्द सिंह के मसंद ( मसंद फारसी शब्द है जिसका अर्थ है मसनद या गद्दी ) रहते थे। मसनदों का काम था गुरु के भक्तों से भेंट लेकर गुरु के पास भेजना। सरहिन्द में भी गुरु का मसंद रहता था। सरहिन्द के मसंद और वहां दरबार में रहने वाले हिंदु राजा के प्रतिनिधियों में इसी बात को लेकर झगड़ा होता था राजा ने गुरु को लिखा “आपके मसंद हमारी रिआया से टैक्स वसूल कर रहे हैं आपको टैक्स वसूलने का हक नहीं है। आप अपने मसंदों का वापस बुला लीजिये”। गुरु गोविंद सिंह ने पता लगाकर पत्र का उत्तर दिया कि “मेरे मसंद किसी से कोई टैक्स वसूल नहीं करते, गुरु के भक्त जो उनको भेंट देते हैं उसे लेकर वे दरबार साहेब को भेज देते हैं किसी के यहां जाकर वे एक पैसा भी वसूल नहीं करते, मैंने पता लगा लिया है इसीलिये सर हिन्द से मसंद को वापस नहीं बुलाऊंगा”।
गुरु गोविन्द सिंह के जवाब के बाद मसंद और कर्मचारियों में झगड़े हुऐ मसंद मारा गया उसके मरने पर गुरु के भक्तों ने मसंद की मूर्तियों के लिये चढाई कर दी। गुरु की फौज में हिंदु सिख मुसलमान सभी थे। जिनमें मुसलमानों की संख्या अधिक थी। कई दिन तक लड़ाई जारी रहा, गुरु की फौज का पलड़ा भारी रहा। हिंदु राजाओं ने औरंगजेब को खबर भेजी “जहांपनाह हम आपकी रिआया हैं हम पर बागी गोविन्द सिंह ने हमला किया है आप मदद के लिये हुक्म भेजिये। औरंगजेब के दरबार में नंदलाल नामक मुंशी था औरंजेब ने नंदलाल से पूछा । यह क्या मामला है ?
नंदलाल – “जहांपनाह यह उनका मुकामी मामला है आपस में तय करें सल्तनत इसमें दखल न दें”।
औरंगजेब के इस इन्कार पर गुरु का प्रभाव और अधिक बढ़ गया हिंदू राजाओं ने मिलकर औरंगजेब को दोबारा लिखा। “ जहांपनाह अगर आप हमें मदद नहीं देंगे तो पंजाब के सबके सब हिंदू आपके हाथ से निकल जायेंगे”
औरंगजेब के सामने प्रश्न था पूरे पंजाब के हिंदुओं का इस बार मुंशी नन्दलाल की बात नहीं सुनी गई।
दिल्ली से कुमुक पहुंचते ही गुरु गौविंद सिंह की सेना के पांव उखड़ गये लड़ाई में उनके दो पुत्र काम आये। गुरु गोविन्द सिंह ने आन्नदपुर छोड़ने का फैसला किया उनके साथ मां और उनके दो मासूम बेटे थे और रसोईया गंगू भी था। गंगू ने गुरु से प्रार्थना की कि “बच्चों और माता जी को मेरे पास छोड़ दीजिये मैं उन्हें हिफाजत से रख लुंगा।”
मुगल दरबार के नवाब नाजिम सर हिन्द में रहते थे उन्होंने ऐलान किया कि जो गुरु के दो मासूम बेटों को नाजिम के दरबार में पेश करेगा उसको भारी रकम ईनाम में मिलेगी। गंगू का दिल डोल गया उसने गुरु के दोनों बेटों में इनाम के लालच में नाजिम के दरबार में पेश कर दिया।
बच्चों को लेकर नाजिम के दरबार में काफी बहस हुई नाजिम के दो सलाहकार थे एक मलेरकोटला के नवाब और दूसरा हिंदू दीवान। मलेरकोटला के नवाब ने कहा “हमारी लड़ाई गोविन्द सिंह से है इन बच्चों से नहीं इन्हें छोड़ देना चाहिये।”
हिन्दू दीवान “सांप के बच्चे सांप होते हैं, इन्हें आपने छोड़ दिया तो हिंदू हमारे हाथ से निकल जायेंगे”।
एक मत के खिलाफ दो मतों से गुरु के दोनों बेटे जिंदा दीवार में चिनवा दिये गये, चिनने का हुक्म नाजिम ने दिया। उधर गोविन्द सिंह भागते हुऐ पंजाब की ओर जा रहे थे पहाड़ी राजाओं ने उन्हें पकड़वाने की कोशिश की और मुसलमानों ने उनकी जान बचाने की। मुसलमान भाईयों का एक बाग था इन दोनों मुसलमानों ने बाग के अंदर गोविन्द सिंह को ठहराया। एक दिन वे गुरु के साथ नाश्ता कर रहे थे कि मुगल सेना को पता चला कि गुर बाग में है। एक सवार बाग में आया, मुसलमान भाईयों ने गोविन्द सिंह से कहा “अपना साफा उतारकर टांगों में दबा लीजिये और बाल खोल दीजिये।“ सवार पास आया और भाईयों ने जवाब दिया “यहां कोई गोविन्द सिंह नहीं है”। सवार को शक हुआ उसने पूछ ये नंगे सिर वाला कौन है ? भाईयों ने जवाब दिया ये “हमारे उच्छ के पीर हैं” सवार को यकीन हो गया बोला पीर साहेब को मेरा सलाम इस तरह गुरु की जान बच गई ।
एक जगह, भाखड़ा नांगल से कुछ ऊपर एक छोटा सा गांव है वहां सड़क के किनारे एक मौलवी का घर था। मौलवी ने गोविन्द सिंह को अपने यहां छिपा लिया था मुगल सेना के सिपाही वहां भी पीछे – पीछे पहुंचे मौलवी ने अपनी जवान बेटी को पर्दे के पीछे बैठा दिया और उसी के पास गुरु जी को बैठा दिया। सैनिक आये पूछा “यहां गोविन्द सिंह है ”
मौलवी – “यहां गोविन्द सिंह का क्या काम”
सैनिक ऊपर की मंजिल में गये पर्दे पास अटके फिर पर्दा हटाकर देखा पूछा – “यह कौन है”
मौलवी “इसमें मेरी लड़की और दामाद है” सैनिक हल्कि निगाह डाली और देखकर चला गयाइस तरह की कई घटनाऐं हुईं। कई दिन के बाद गुरु जी ने भागते हुऐ किसी मुकाम से औरंगजेब को फारसी कविता में फटकार के साथ एक खत लिखा । 30 – 40 सफ्हे का यह खत था इसका नाम है “जफरनामा” खत की कुछ लाईनें हैं
“मनम कुश्तनी कोहिया पुरफितन
के आं बुतपरस्तां वो मन बुतशिकन।
अर्थात “ मारा मैं जाऊं और ये पहाड़ी हिंदू राजा फितने से भरे हैं। ये बुतपरस्त हैं और मैं बुतशिकन (मूर्तीभंजक) हूं। तुझे शर्म नहीं आती कि तूने इस मूर्तीपूजकों को मुझ मूर्तीभंजक के विरुद्ध मदद दी”।
खत जब औरंगजेब के दरबार में पहुंचा तो उसने पूछा कि ये “कौनसा मामला है” ? नन्दलाल “ जहांपनाह यह वही सरहिन्द का मामला है आपने दोबारा कहने पर कुमक भेज दी थी“
औरंगजेब “ गोविन्द सिंह कैसा आदमी है”
नन्दलाल “ जहांपनाह अल्लाह वाला है बुतपरस्ती और शिर्क के खिलाफ है मवहिद है”
औरंजेब “ क्या मवहिद है ? तो कुमुक भेजना गलती हुई ?“
औरंगजेब ने जरा सोचकर कहा – “ सल्तनत की तरफ से फरमान जारी कर दो कि गोविन्द सिंह जहां चाहे रहकर, जिस तरह चाहे अल्लाह को याद कर सकता है। उसके साथ कहीं कोई मज़ाहत न हो।“
यह फरमान सारे हिन्दुस्तान में भेज दिया गया इस फरमान की कॉपी गुरु गोविन्द सिंह को मिल गई उनका छिपकर रहना समाप्त हो गया। लेकिन उन्हीं दिनों के करीब वे दक्षिण जाने का फैसला कर चुके है। उन्होंने खुले दक्षिण की यात्रा की। वहां नांदेड़ में दो पठानों के साथ उनका झगड़ा हुआ वहीं गुरु गोविन्द सिंह शहीद हुऐ और वहीं उनकी समाधी बनी।
अब आप खुद तय कर लीजिये कि स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला मनघड़ंत इतिहास से ये तथ्य कितने भिन्न हैं।
भारतीय संस्कृति
मुगल विरासत : औरंगजेब के फरमान - लेखक बिशमंभर नाथ पांडे पेज नं. 122 – 125 (प्रकाशक हिंदी अकदमी दिल्ली)
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