इतिहास बताता है कि संघ परिवार कितना बड़ा देशभक्त है

संघ परिवार ने बड़ी चतुराई से अपने कृत्यों पर ‘राष्ट्रवादी’ होने का लेबल चिपका लिया है और मीडिया ने बिना सोचे-विचारे उसे स्वीकार कर लिया है.

मामला चाहे दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के हालिया हमले का हो, या पिछले साल फरवरी में हुई जेएनयू की घटना का, या मोदी सरकार के कार्यकाल में ‘देशद्रोही’ कलाकारों, पत्रकारों पर हुए हमलों का- प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कई संस्थान ख़ुशी-ख़ुशी इन संघर्षों को ‘अभिव्यक्ति की आजादी बनाम राष्ट्रवाद’ की लड़ाई के झूठे युग्मक (बाइनरी) के तौर पर पेश करने की कोशिश करते दिखे हैं.

संघ परिवार ने बड़ी चतुराई से अपने और अपने कृत्यों पर ‘राष्ट्रवादी’ होने का जो लेबल चिपका लिया है, उसे बिना सोचे-विचारे इन मीडिया संस्थानों ने स्वीकार कर लिया है. यह स्वीकृति दरअसल हमारे कई वरिष्ठ पत्रकारों के इतिहास के कम ज्ञान की गवाही देती है. आज़ादी के राष्ट्रीय संघर्ष के साथ हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा किया गया धोखा, उनके सीने पर ऐतिहासिक शर्म की गठरी की तरह रहना चाहिए था, लेकिन इतिहास को लेकर पत्रकारों की कूपमंडूकता हिंदुत्ववादी शक्तियों की ताक़त बन गयी है और वे इसका इस्तेमाल इस बोझ को उतार फेंकने के लिए कर रहे हैं. झूठे आत्मप्रचार को मिल रही स्वीकृति का इस्तेमाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कट्टर राष्ट्रवादी के तौर पर अपनी नयी झूठी मूर्ति गढ़ने के लिए कर रहा है. वह ख़ुद को एक ऐसे संगठन के तौर पर पेश कर रहा है, जिसके लिए राष्ट्र की चिंता सर्वोपरि है.

भारत में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय आजादी के लिए संघर्ष के बीच अटूट संबंध है. अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों के दावों की हक़ीक़त जांचने के लिए उपनिवेशवाद से आज़ादी की लड़ाई के दौर में आरएसएस की भूमिका को फिर से याद करना मुनासिब होगा.

18 मार्च, 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संघ के कार्यकताओं से भरी एक सभा में आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार को महान स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देते हुए उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया था. इस पर शम्सुल इस्लाम ने लिखा था कि यह चाल ‘आज़ादी से पहले आरएसएस की राजनीतिक लाइन को उपनिवेश-विरोधी संघर्ष की विरासत के तौर पर स्थापित करने की कोशिश थी जबकि वास्तविकता में आरएसएस कभी भी उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष का हिस्सा नहीं रहा था. इसके विपरीत 1925 में अपने गठन के बाद से आरएसएस ने सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुक़ूमूत के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के महान उपनिवेश विरोधी संघर्ष में अड़चनें डालने का काम किया.’


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