मुस्लिम महिलाओं को ईसलाम ने वो सात अधीकार दियें हैं जिसकी मिसाल किसी दुसरे धर्म में नही मिलती

मुस्लिम महिलाओं को ईसलाम ने वो सात अधीकार दियें हैं जिसकी मिसाल किसी दुसरे धर्म में नही मिलती

पाँच धर्मों के न्यायाधीश सज्जनों को इसलिए निर्णय का अधिकार दिया गया है कि कोई यह न कह सके कि निर्णय में कोई पूर्वाग्रह बरता गया हे.मज़े की बात यह है कि वैवाहिक जीवन के जो नियम इस्लाम में हैं वह किसी और धर्म में ही नहीं। मजेदार बात यह है कि दुनिया के सभी धर्मों ने तलाक की परंपरा इस्लाम से ली और अब सभी धर्मों के लोग इस्लाम के तलाक प्रणाली पर उंगलियां उठा रहे हैं। लिखना बहुत चाहता था, मगर केवल एक बात कह देता हूं कि मुक़दमा जीतने के लिए आम लोग वकील करते हैं, लेकिन खास लोग जज ही कर लेते हैं।

यह पोस्ट उन न्यायाधीशों के लिए है जो इस मामले को देख रहे हैं। नक़ीबउल हसन के इस पोस्ट को वे न्यायाधीश सज्जन ज़रूर पढ़ें, जो अदालतों में तलाक के मसले पर पति पत्नियों के बेहूदा आरोप से थक कर तलाक का फैसला दे देते हैं। वे यह सोचें कि इस्लाम में तलाक का मामला दोष है, लेकिन इसमें भी सलीक़ा है।

इस्लाम में महिलाओं को अत्यधिक अत्याचार और शोषण 

आमतौर पर लोगों की धारणा यह है कि इस्लाम में महिलाओं को अत्यधिक अत्याचार और शोषण सहना पड़ता है – लेकिन क्या हकीक़त में ऐसा है ? क्या लाखों की तादाद में मुसलमान इतने दमनकारी हैं या फिर ये गलत धारणाएं पक्षपाती मीडिया ने पैदा की हैं ? इस्लाम को लेकर यह गलतफहमी है और फैलाई जाती है कि इस्लाम में औरत को कमतर समझा जाता है। सच्चाई इसके उलट है। हम इस्लाम का अध्ययन करें तो पता चलता है कि इस्लाम ने महिला को चौदह सौ साल पहले वह मुकाम दिया है जो आज के कानून दां भी उसे नहीं दे पाए।

इस्लाम लोकतान्त्रिक मज़हब है और इसमें औरतों को बराबरी के जितने अधिकार दिए गए हैं उतने किसी भी धर्म में नहीं हैं।इस्लाम के अलावा कोई ऐसा दीन, धर्म या जीवन दर्शन नहीं है जिसने औरत को उसका पूरा जायज़ अधिकार और न्याय दिया हो और उसके नारित्व की सुरक्षा की हो। इंसानी हैसियत से दायित्वों और कर्तव्यों के मामले में औरत मर्द के बराबर है। माँ की हैसियत ये बताई गयी है कि उसके पैरों तले जन्नत है।

1930 में, एनी बेसेंट ने कहा, “ईसाई इंग्लैंड में संपत्ति में महिला के अधिकार को केवल बीस वर्ष पहले ही मान्यता दी गई है, जबकि इस्लाम में हमेशा से इस अधिकार को दिया गया है। यह कहना बेहद गलत है कि इस्लाम उपदेश देता है कि महिलाओं में कोई आत्मा नहीं है ।” (जीवन और मोहम्मद की शिक्षाएं, 1932)

डॉक्टर लिसा (अमेरिकी नव मुस्लिम महिला)मैंने तो जिस धर्म (इस्लाम) को स्वीकार किया है वह स्त्री को पुरुष से अधिक अधिकार देता है।

डॉक्टर लिसा एक अमेरिकी महिला डॉक्टर हैं, लगभग तीस साल पहले मुसलमान हुई हैं और मुबल्लिगा हैं, यह इस्लाम में महिलाओं के अधिकार के संबंध में लगने वाले आरोपों का दान्दान शिकन जवाब देने के संबंध में काफी प्रसिद्ध हैं।

उनके एक व्याख्यान के अंत में उनसे सवाल किया गया कि –

“आप ने एक ऐसा धर्म क्यों स्वीकार किया जो औरत को मर्द से कम अधिकार देता है”?

*उन्होंने जवाब में कहा कि –

“मैंने तो जिस धर्म को स्वीकार किया है वह स्त्री को पुरुष से अधिक अधिकार देता है”,

पूछने वाले ने पूछा वो कैसे?

डॉक्टर साहिबा ने कहा “सिर्फ दो उदाहरण से समझ लीजिए”,

– पहली यह कि “इस्लाम ने मुझे चिंता आजीविका से मुक्त रखा है यह मेरे पति की जिम्मेदारी है कि वह मेरे सारे खर्च पूरे करे”, चिंता आजीविका से बड़ा कोई सांसारिक बोझ नहीं और अल्लाह हम महिलाओं को इससे पूरी तरह से मुक्ति रखा है, शादी से पहले यह हमारे पिता की जिम्मेदारी है और शादी के बाद हमारे पति की।

– दूसरा उदाहरण यह है कि “अगर मेरी संपत्ति में निवेश या संपत्ति आदि हो तो इस्लाम कहता है कि यह सिर्फ तुम्हारा है तुम्हारे पति का इसमें कोई हिस्सा नहीं है”,

जबकि मेरे पति को इस्लाम कहता है कि “जो आप ने कमा और बचा रखा है यह सिर्फ तुम्हारा बल्कि तुम्हारी पत्नी का भी है अगर आप ने उसका यह हक़ अदा न किया तो मैं तुम्हें देख लूंगा।”

आए कुछ इस्लाम की बाते जो औरतो से संबंधित है, उस पर सोचे और अपने ज़िंदगी मे अपना कर अपना जीवन सफल बनाए/

1-इस्लाम ने औरतों को संपत्ति का अधिकार -औरत को बेटी के रूप में पिता की जायदाद और बीवी के रूप में पति की जायदाद का हिस्सेदार बनाया गया। यानी उसे साढ़े चौदह सौ साल पहले ही संपत्ति में अधिकार दे दिया गया।

2-औरतों को अपनी पहचान बनाये रखने का सम्मान-इस्लाम ने औरतों को अपनी पहचान बनाये रखने का भी सम्मान किया है इसलिए जब अन्य महज़ब में शादी के बाद नाम बदलने की इज़ाज़त है ,इस्लाम में औरत शादी के बाद भी अपना नाम बरक़रार रख सकती है। उन्होंने कहा कि अगर इसके बाद भी लोग सोचते हैं कि हम लोग अपनी औरतों को दबा कर रखते हैं तो हमें इस पर सोचना चाहिए।

3-तलाक़ (तलाक़े खुला) लेने का अधिकार-इस्लाम के पहले दुखी और कष्टपुर्ण वैवाहिक जीवन को समाप्त करके पति पत्नी के अलग अलग सुखी जीवन जीने का कोई वैज्ञानिक उपाय किसी मज़हब में नहीं था। जहाँ मर्द को बुरी औरत से निजात के लिए तालाक़ का अधिकार दिया है। वही औरत को भी “खुला” का अधिकार प्रदान किया गया है। जिसका प्रयोग कर वो ग़लत मर्द से छुटकारा पाने का आसान रास्ता दे दिया गया।

अन्य धर्मो मे तो जालिम पति या पत्नी से निजात कैसे मिले, कोई नियम नही था/ हाल ही मे यूरोप और अपने भारत मे हिंदू लोगो ने , इस्लाम के तरह तलाक़ लेने की प्रथा की प्रारम्भ की, जिस मे बहुत पेचीदेगी है/ यूरोप मे अगर तलाक़ हो जाता है और बीबी चाहे जितनी भी जालिम हो , उसको ज़िंदगी भर पैसा देने होगा या सतत्लेम्मेंट के तौर पर एक एक भारी रकम बिना किसी जुर्म किए चुकाना पड़ेगा/ भारत मे भी हिंदू तलाक़ के सिस्टम मे भारी पेचेदगि है/ वर्षो वर्षो लग जाते है तलाक़ लेने मे और आज दिल्ली समेत कई शहरो मे ग़लत औरतो द्वारा कई शादी करके पैसे हड़पनेकी / हिंदू पति जी परेशान है जालिम औरतो से छुटकारा पाने के लिए/ बहुत कम ही खुशकिस्मत है जिनको दस पंद्रह साल मे तलाक़ मिल जाए/

ज़रा सोचिएगा कि एक दंपत्ति जिनका दांपत्य जीवन कटुता और विष से भरा है तो उसके पास किसी अन्य धर्म के अनुसार अलग-अलग सुखमय जीवन जीने का क्या विकल्प है ?

कोई नहीं , ना सनातन ना ईसाई ना सिख

यह व्यवस्था केवल इस्लाम में है

अदालतों में क्या होता है ?

पति न्यायाधीश और वकीलों तथा रिश्तेदारों की उपस्थित में अपनी पत्नी के चाल चरित्र से लेकर स्वभाव तक का गलत सही आरोप लगाता है , उसे कुलटा कलमुही और कुलच्छनी साबित करता है , गैर मर्द के साथ उसके हमबिस्तर होने की झूठी सच्ची गवाही दिलाता है।

यही पत्नी भी करती है , वह अपने पति को नामर्द और शारीरिक संतुष्टि ना देने वाला सिद्ध करती है , अलग अलग महिलाओं से उसके नाजायज़ संबंध सिद्ध करती है , मारपीट करने वाला सिद्ध करती है।

फिर न्यायाधीश भी उकता कर दोनों को अलग होने का फैसला सुना देता है ।

दोनों अलग हो जाते हैं पर उनको मिलता क्या है ? उन दोनों पर एक दूसरे के लगाए झूठे सच्चे आरोप उनके अगले वैवाहिक जीवन की संभावना को समाप्त कर देते हैं।

अदालत में एक दूसरे को नंगा कर के पाए तलाक उनके लिए जीवन भर के लिए काल बन जाते हैं और पुनर्विवाह के हर शुरुआती बातचीत का अंत कर देते हैं।

इसीलिये पत्नी को जलाकर मार देना या लटका देना पतियों को एक बेहतर विकल्प लगता है और ऐसी घटनाएँ बहुतायत में होती हैं।

सोचिए कि कौन सी स्थिति बेहतर है ? एक कमरे में पति पत्नी का चुपचाप इस्लामिक पद्धति से अलग हो जाना या नंगानाच करके अलग होना।

आप चिढ़ में इस्लामिक व्यवस्थाओं को लाख बुरा कहिए परन्तु एक ना एक दिन आपको इसे अपनाना ही पड़ेगा , उच्चतम न्यायालय भी हिन्दुओं को तलाक की अनुमति दे चुकी है।

4-समान पुरस्कार और बराबर जवाबदेही– इस्लाम में आदमी और औरत एक ही अल्लाह को मानते हैं, उसी की इबादत करते हैं, एक ही किताब पर ईमान लाते हैं | अल्लाह सभी इंसानों को एक जैसी कसौटी पर तौलता है वह भेदभाव नहीं करता।

अगर हम दुसरे मज़हबों से इस्लाम की तुलना करेंगे तब हम देखेंगे की इस्लाम दोनों लिंगों के बीच भी न्याय करता है | उदाहरण के लिए इस्लाम इस बात को ख़ारिज करता है कि माँ हव्वा हराम पेड़ से फल तोड़ कर खाने के लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हैं बजाय हज़रत आदम के | इस्लाम के मुताबिक माँ हव्वा और हज़रत आदम दोनों ने गुनाह किया | जिसके लिए दोनों को सजा मिली | जब दोनों को अपने किये पर पछतावा हुआ और उन्होंने माफ़ी मांगी, तब दोनों को माफ़ कर दिया गया।

5-तलाकशुदा का विवाह- समाज मे हर व्यक्ति को बिना शादी के नही रहना चाहिए/ अगर तलाक़ हो गयी है तो फ़ौरन अच्छे साथी चुन कर सुखमय जीवन बिताना चाहिए/तलाकशुदा और विधवा महिलाओं को सम्मान देकर पुरुषों को उनसे विवाह करने के लिए प्रेरित किया है , सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत मुहम्मद ने ऐसी तलाकशुदा और विधवा महिलाओं से खुद विवाह करके अपने मानने वालों को दिखाया कि देखो मैं कर रहा हूँ , तुम भी करो , मैं सम्मान और हक दे रहा हूँ तुम भी दो , मुसलमानों के लिए विधवा और तलाकशुदा औरतों से विवाह करना हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की एक सुन्नत पूरी करना है जो बहुत पुण्य का काम है।

भारत में ही विधवाओं को पति की चिता में सती कर देने की व्यवस्था थी तो उसी भारत में जीवित रह गयी विधवाओं और विधुरों के लिए क्या व्यवस्था थी ? नियोग प्रथा

6-वर चुनने का अधिकार-वर चुनने के मामले में इस्लाम ने स्त्री को यह अधिकार दिया है कि वह किसी के विवाह प्रस्ताव को स्वेच्छा से स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। इस्लामी कानून के अनुसार किसी स्त्री का विवाह उसकी स्वीकृति के बिना या उसकी मर्जी के विरुद्ध नहीं किया जा सकता। बीवी के रूप में भी इस्लाम औरत को इज्जत और अच्छा ओहदा देता है। कोई पुरुष कितना अच्छा है, इसका मापदंड इस्लाम ने उसकी पत्नी को बना दिया है। इस्लाम कहता है अच्छा पुरुष वहीं है जो अपनी पत्नी के लिए अच्छा है। यानी इंसान के अच्छे होने का मापदंड उसकी हमसफर है।

7-स्वतंत्र बिज़्नेस करने का अधिकार-इस्लाम ने महिलाओं को बहुत से अधिकार दिए हैं। जिनमें प्रमुख हैं, जन्म से लेकर जवानी तक अच्छी परवरिश का हक़, शिक्षा और प्रशिक्षण का अधिकार, शादी ब्याह अपनी व्यक्तिगत सहमति से करने का अधिकार और पति के साथ साझेदारी में या निजी व्यवसाय करने का अधिकार, नौकरी करने का आधिकार, बच्चे जब तक जवान नहीं हो जाते (विशेषकर लड़कियां) और किसी वजह से पति और पुत्र की सम्पत्ति में वारिस होने का अधिकार। इसलिए वो खेती, व्यापार, उद्योग या नौकरी करके आमदनी कर सकती हैं और इस तरह होने वाली आय पर सिर्फ और सिर्फ उस औरत का ही अधिकार होगा। औरत को भी हक़ है। (पति से अलग होना का अधिकार)




 





पाँच धर्मों के न्यायाधीश सज्जनों को इसलिए निर्णय का अधिकार दिया गया है कि कोई यह न कह सके कि निर्णय में कोई पूर्वाग्रह बरता गया हे.मज़े की बात यह है कि वैवाहिक जीवन के जो नियम इस्लाम में हैं वह किसी और धर्म में ही नहीं। मजेदार बात यह है कि दुनिया के सभी धर्मों ने तलाक की परंपरा इस्लाम से ली और अब सभी धर्मों के लोग इस्लाम के तलाक प्रणाली पर उंगलियां उठा रहे हैं। लिखना बहुत चाहता था, मगर केवल एक बात कह देता हूं कि मुक़दमा जीतने के लिए आम लोग वकील करते हैं, लेकिन खास लोग जज ही कर लेते हैं।

यह पोस्ट उन न्यायाधीशों के लिए है जो इस मामले को देख रहे हैं। नक़ीबउल हसन के इस पोस्ट को वे न्यायाधीश सज्जन ज़रूर पढ़ें, जो अदालतों में तलाक के मसले पर पति पत्नियों के बेहूदा आरोप से थक कर तलाक का फैसला दे देते हैं। वे यह सोचें कि इस्लाम में तलाक का मामला दोष है, लेकिन इसमें भी सलीक़ा है।

इस्लाम में महिलाओं को अत्यधिक अत्याचार और शोषण 

आमतौर पर लोगों की धारणा यह है कि इस्लाम में महिलाओं को अत्यधिक अत्याचार और शोषण सहना पड़ता है – लेकिन क्या हकीक़त में ऐसा है ? क्या लाखों की तादाद में मुसलमान इतने दमनकारी हैं या फिर ये गलत धारणाएं पक्षपाती मीडिया ने पैदा की हैं ? इस्लाम को लेकर यह गलतफहमी है और फैलाई जाती है कि इस्लाम में औरत को कमतर समझा जाता है। सच्चाई इसके उलट है। हम इस्लाम का अध्ययन करें तो पता चलता है कि इस्लाम ने महिला को चौदह सौ साल पहले वह मुकाम दिया है जो आज के कानून दां भी उसे नहीं दे पाए।

इस्लाम लोकतान्त्रिक मज़हब है और इसमें औरतों को बराबरी के जितने अधिकार दिए गए हैं उतने किसी भी धर्म में नहीं हैं।इस्लाम के अलावा कोई ऐसा दीन, धर्म या जीवन दर्शन नहीं है जिसने औरत को उसका पूरा जायज़ अधिकार और न्याय दिया हो और उसके नारित्व की सुरक्षा की हो। इंसानी हैसियत से दायित्वों और कर्तव्यों के मामले में औरत मर्द के बराबर है। माँ की हैसियत ये बताई गयी है कि उसके पैरों तले जन्नत है।

1930 में, एनी बेसेंट ने कहा, “ईसाई इंग्लैंड में संपत्ति में महिला के अधिकार को केवल बीस वर्ष पहले ही मान्यता दी गई है, जबकि इस्लाम में हमेशा से इस अधिकार को दिया गया है। यह कहना बेहद गलत है कि इस्लाम उपदेश देता है कि महिलाओं में कोई आत्मा नहीं है ।” (जीवन और मोहम्मद की शिक्षाएं, 1932)

डॉक्टर लिसा (अमेरिकी नव मुस्लिम महिला)मैंने तो जिस धर्म (इस्लाम) को स्वीकार किया है वह स्त्री को पुरुष से अधिक अधिकार देता है।

डॉक्टर लिसा एक अमेरिकी महिला डॉक्टर हैं, लगभग तीस साल पहले मुसलमान हुई हैं और मुबल्लिगा हैं, यह इस्लाम में महिलाओं के अधिकार के संबंध में लगने वाले आरोपों का दान्दान शिकन जवाब देने के संबंध में काफी प्रसिद्ध हैं।

उनके एक व्याख्यान के अंत में उनसे सवाल किया गया कि –

“आप ने एक ऐसा धर्म क्यों स्वीकार किया जो औरत को मर्द से कम अधिकार देता है”?

*उन्होंने जवाब में कहा कि –

“मैंने तो जिस धर्म को स्वीकार किया है वह स्त्री को पुरुष से अधिक अधिकार देता है”,

पूछने वाले ने पूछा वो कैसे?

डॉक्टर साहिबा ने कहा “सिर्फ दो उदाहरण से समझ लीजिए”,

– पहली यह कि “इस्लाम ने मुझे चिंता आजीविका से मुक्त रखा है यह मेरे पति की जिम्मेदारी है कि वह मेरे सारे खर्च पूरे करे”, चिंता आजीविका से बड़ा कोई सांसारिक बोझ नहीं और अल्लाह हम महिलाओं को इससे पूरी तरह से मुक्ति रखा है, शादी से पहले यह हमारे पिता की जिम्मेदारी है और शादी के बाद हमारे पति की।

– दूसरा उदाहरण यह है कि “अगर मेरी संपत्ति में निवेश या संपत्ति आदि हो तो इस्लाम कहता है कि यह सिर्फ तुम्हारा है तुम्हारे पति का इसमें कोई हिस्सा नहीं है”,

जबकि मेरे पति को इस्लाम कहता है कि “जो आप ने कमा और बचा रखा है यह सिर्फ तुम्हारा बल्कि तुम्हारी पत्नी का भी है अगर आप ने उसका यह हक़ अदा न किया तो मैं तुम्हें देख लूंगा।”

आए कुछ इस्लाम की बाते जो औरतो से संबंधित है, उस पर सोचे और अपने ज़िंदगी मे अपना कर अपना जीवन सफल बनाए/

1-इस्लाम ने औरतों को संपत्ति का अधिकार -औरत को बेटी के रूप में पिता की जायदाद और बीवी के रूप में पति की जायदाद का हिस्सेदार बनाया गया। यानी उसे साढ़े चौदह सौ साल पहले ही संपत्ति में अधिकार दे दिया गया।

2-औरतों को अपनी पहचान बनाये रखने का सम्मान-इस्लाम ने औरतों को अपनी पहचान बनाये रखने का भी सम्मान किया है इसलिए जब अन्य महज़ब में शादी के बाद नाम बदलने की इज़ाज़त है ,इस्लाम में औरत शादी के बाद भी अपना नाम बरक़रार रख सकती है। उन्होंने कहा कि अगर इसके बाद भी लोग सोचते हैं कि हम लोग अपनी औरतों को दबा कर रखते हैं तो हमें इस पर सोचना चाहिए।

3-तलाक़ (तलाक़े खुला) लेने का अधिकार-इस्लाम के पहले दुखी और कष्टपुर्ण वैवाहिक जीवन को समाप्त करके पति पत्नी के अलग अलग सुखी जीवन जीने का कोई वैज्ञानिक उपाय किसी मज़हब में नहीं था। जहाँ मर्द को बुरी औरत से निजात के लिए तालाक़ का अधिकार दिया है। वही औरत को भी “खुला” का अधिकार प्रदान किया गया है। जिसका प्रयोग कर वो ग़लत मर्द से छुटकारा पाने का आसान रास्ता दे दिया गया।

अन्य धर्मो मे तो जालिम पति या पत्नी से निजात कैसे मिले, कोई नियम नही था/ हाल ही मे यूरोप और अपने भारत मे हिंदू लोगो ने , इस्लाम के तरह तलाक़ लेने की प्रथा की प्रारम्भ की, जिस मे बहुत पेचीदेगी है/ यूरोप मे अगर तलाक़ हो जाता है और बीबी चाहे जितनी भी जालिम हो , उसको ज़िंदगी भर पैसा देने होगा या सतत्लेम्मेंट के तौर पर एक एक भारी रकम बिना किसी जुर्म किए चुकाना पड़ेगा/ भारत मे भी हिंदू तलाक़ के सिस्टम मे भारी पेचेदगि है/ वर्षो वर्षो लग जाते है तलाक़ लेने मे और आज दिल्ली समेत कई शहरो मे ग़लत औरतो द्वारा कई शादी करके पैसे हड़पनेकी / हिंदू पति जी परेशान है जालिम औरतो से छुटकारा पाने के लिए/ बहुत कम ही खुशकिस्मत है जिनको दस पंद्रह साल मे तलाक़ मिल जाए/

ज़रा सोचिएगा कि एक दंपत्ति जिनका दांपत्य जीवन कटुता और विष से भरा है तो उसके पास किसी अन्य धर्म के अनुसार अलग-अलग सुखमय जीवन जीने का क्या विकल्प है ?

कोई नहीं , ना सनातन ना ईसाई ना सिख

यह व्यवस्था केवल इस्लाम में है

अदालतों में क्या होता है ?

पति न्यायाधीश और वकीलों तथा रिश्तेदारों की उपस्थित में अपनी पत्नी के चाल चरित्र से लेकर स्वभाव तक का गलत सही आरोप लगाता है , उसे कुलटा कलमुही और कुलच्छनी साबित करता है , गैर मर्द के साथ उसके हमबिस्तर होने की झूठी सच्ची गवाही दिलाता है।

यही पत्नी भी करती है , वह अपने पति को नामर्द और शारीरिक संतुष्टि ना देने वाला सिद्ध करती है , अलग अलग महिलाओं से उसके नाजायज़ संबंध सिद्ध करती है , मारपीट करने वाला सिद्ध करती है।

फिर न्यायाधीश भी उकता कर दोनों को अलग होने का फैसला सुना देता है ।

दोनों अलग हो जाते हैं पर उनको मिलता क्या है ? उन दोनों पर एक दूसरे के लगाए झूठे सच्चे आरोप उनके अगले वैवाहिक जीवन की संभावना को समाप्त कर देते हैं।

अदालत में एक दूसरे को नंगा कर के पाए तलाक उनके लिए जीवन भर के लिए काल बन जाते हैं और पुनर्विवाह के हर शुरुआती बातचीत का अंत कर देते हैं।

इसीलिये पत्नी को जलाकर मार देना या लटका देना पतियों को एक बेहतर विकल्प लगता है और ऐसी घटनाएँ बहुतायत में होती हैं।

सोचिए कि कौन सी स्थिति बेहतर है ? एक कमरे में पति पत्नी का चुपचाप इस्लामिक पद्धति से अलग हो जाना या नंगानाच करके अलग होना।

आप चिढ़ में इस्लामिक व्यवस्थाओं को लाख बुरा कहिए परन्तु एक ना एक दिन आपको इसे अपनाना ही पड़ेगा , उच्चतम न्यायालय भी हिन्दुओं को तलाक की अनुमति दे चुकी है।

4-समान पुरस्कार और बराबर जवाबदेही– इस्लाम में आदमी और औरत एक ही अल्लाह को मानते हैं, उसी की इबादत करते हैं, एक ही किताब पर ईमान लाते हैं | अल्लाह सभी इंसानों को एक जैसी कसौटी पर तौलता है वह भेदभाव नहीं करता।

अगर हम दुसरे मज़हबों से इस्लाम की तुलना करेंगे तब हम देखेंगे की इस्लाम दोनों लिंगों के बीच भी न्याय करता है | उदाहरण के लिए इस्लाम इस बात को ख़ारिज करता है कि माँ हव्वा हराम पेड़ से फल तोड़ कर खाने के लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हैं बजाय हज़रत आदम के | इस्लाम के मुताबिक माँ हव्वा और हज़रत आदम दोनों ने गुनाह किया | जिसके लिए दोनों को सजा मिली | जब दोनों को अपने किये पर पछतावा हुआ और उन्होंने माफ़ी मांगी, तब दोनों को माफ़ कर दिया गया।

5-तलाकशुदा का विवाह- समाज मे हर व्यक्ति को बिना शादी के नही रहना चाहिए/ अगर तलाक़ हो गयी है तो फ़ौरन अच्छे साथी चुन कर सुखमय जीवन बिताना चाहिए/तलाकशुदा और विधवा महिलाओं को सम्मान देकर पुरुषों को उनसे विवाह करने के लिए प्रेरित किया है , सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत मुहम्मद ने ऐसी तलाकशुदा और विधवा महिलाओं से खुद विवाह करके अपने मानने वालों को दिखाया कि देखो मैं कर रहा हूँ , तुम भी करो , मैं सम्मान और हक दे रहा हूँ तुम भी दो , मुसलमानों के लिए विधवा और तलाकशुदा औरतों से विवाह करना हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की एक सुन्नत पूरी करना है जो बहुत पुण्य का काम है।

भारत में ही विधवाओं को पति की चिता में सती कर देने की व्यवस्था थी तो उसी भारत में जीवित रह गयी विधवाओं और विधुरों के लिए क्या व्यवस्था थी ? नियोग प्रथा

6-वर चुनने का अधिकार-वर चुनने के मामले में इस्लाम ने स्त्री को यह अधिकार दिया है कि वह किसी के विवाह प्रस्ताव को स्वेच्छा से स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। इस्लामी कानून के अनुसार किसी स्त्री का विवाह उसकी स्वीकृति के बिना या उसकी मर्जी के विरुद्ध नहीं किया जा सकता। बीवी के रूप में भी इस्लाम औरत को इज्जत और अच्छा ओहदा देता है। कोई पुरुष कितना अच्छा है, इसका मापदंड इस्लाम ने उसकी पत्नी को बना दिया है। इस्लाम कहता है अच्छा पुरुष वहीं है जो अपनी पत्नी के लिए अच्छा है। यानी इंसान के अच्छे होने का मापदंड उसकी हमसफर है।

7-स्वतंत्र बिज़्नेस करने का अधिकार-इस्लाम ने महिलाओं को बहुत से अधिकार दिए हैं। जिनमें प्रमुख हैं, जन्म से लेकर जवानी तक अच्छी परवरिश का हक़, शिक्षा और प्रशिक्षण का अधिकार, शादी ब्याह अपनी व्यक्तिगत सहमति से करने का अधिकार और पति के साथ साझेदारी में या निजी व्यवसाय करने का अधिकार, नौकरी करने का आधिकार, बच्चे जब तक जवान नहीं हो जाते (विशेषकर लड़कियां) और किसी वजह से पति और पुत्र की सम्पत्ति में वारिस होने का अधिकार। इसलिए वो खेती, व्यापार, उद्योग या नौकरी करके आमदनी कर सकती हैं और इस तरह होने वाली आय पर सिर्फ और सिर्फ उस औरत का ही अधिकार होगा। औरत को भी हक़ है। (पति से अलग होना का अधिकार)


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